संदेश

फ़रवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जंगल

घने जंगल में, केसर की सुगंध  खींच रही है। भुजंग बिछे हैं, विकराल  परछाइयाँ काल सी लगी है। भीतरी खींचतान  सिंघ, सारंग सी चली है! ये सतही जय,पराजय विषयासक्त आ खड़ी है।

पाखंड

चित्र
आईने सब दिखा रहे हैं, स्वयं कोई नहीं देख रहा है। मैं, “मैं” से ही कहता है,  वृहत अज्ञान फ़ैला है  इस दुनिया-जहान में! हमारे “मैं” का अबोध बालक सा विराट हट है; जो हमें ज्ञात नहीं है, उसी का ज्ञाता बनना है।  यह पाखंड फ़ैला है, इस दुनिया-जहान में !

सम्बन्ध

चित्र
 गर्मागर्मी में कही बातें झुलसा देती है रिश्तों को ज्यों आग कर देती है   सारा बना बनाया राख़। एक पल में बिखर जाता है ये अंतर्मन का ताना बाना   ज्यों तूफ़ान कर देता है घोंसलों को बर्बाद। यह पीड़ा, यह टूटन   खोखला कर देती है संबंधों को ज्यों सूखी नदी किनारे  खड़ी हो जर्जर नाँव।

गिर के शिखर

चित्र
गिर गिर के गिर के शिखरों पर कालिदास पहुंच तो जाएगा। किन्तु मल्लिका के चक्कर में, क्या महाकाव्य लिख पाएगा! सागर की उठती लहरें भी थाम उन्हें ना पाएंगी! कोरे कागज पर नाखून अश्रु से लिखे हुए अनंत सर्गों के महाकाव्य के संगीतों में गोता खूब लगाएगा, गिर गिर के गिर के शिखरों पर...... - अवधेश तिवारी 

बाल मन

चित्र
 हमनें समझदारियाँ इस क़दर फ़ैला ली हैं, कि बाल मन बचपन में ही बालिग़ हो रहे हैं।
चित्र
जिनकी मोहब्बत दिल-ओ-दीवार तक रहीं  ये प्यार का महीना,उन्हें कहाँ रास आयेगा।

गाँठ बांध लो

चित्र
 जब गैर जीवन-गतियों का निर्धारण करेंगे! चलने से ज्यादा तुमको रुकना होगा, गाँठ बांध लो। अगर लोक मर्यादाओं का सोच; मौन का आश्रय थामा, तो स्वप्न को कैसे पहनाओगे अमली जामा! अगर स्वयं की शक्ति न पहचाने.. तो अंधेरे के सम्मुख तुमको झुकना होगा, गाँठ बांध लो। अगर तपकर; तुमने अपना व्यक्तित्व गढ़ा है,  तो क्या फर्क! कि दूसरों ने तुमको कैसा पढ़ा है। अगर बाहर वालों की सुनकर स्वयं को बदला, तो अवश्य ही स्वत्व को चुकना होगा, गाँठ बांध लो। मिथ्या बोल के बल पर, खड़ी इमारत ढह जायेगी, औ सत्यता से लिखी कहानी, खंडहर बनके रह जायेगी। अगर चढ़ा लिए मुखौटे, तो छद्मावरण करना होगा और सत्य से लुकना होगा, गाँठ बांध लो। -  अवधेश तिवारी 

चोटिल मन

चित्र
 जब किसी का मन चोटिल होता है, तब समझाइशों का सिलसिला  उस चोट को और गहरा कर देता है; कोई भी आकर कुछ कुछ कह जाता है, यह ‘कहकर चले जाना’ चोट गहरा देता है। कोई साथ बैठकर समझता है? गर बैठता हो तब कुछ राहत हो... चोटिल मन नि:शब्द वार्ता चाहता है! विक्षिप्त कहेंगे मुझे लोग...! कैसी लीक से हटकर बात कर रहा है! मैं आपकी समझाइशों पर उंगली उठाने वाला कौन होता हूँ? अगर उठाऊंगा भी तो तीन उंगलियाँ मेरी ओर ही होंगी! मैं विक्षिप्त!  मेरी “चेतना” में आये “अज्ञान” को बता रहा हूँ; किसी चोटिल की वेदना से अनुस्यूत.. उसकी वेदना की.. अनुभूति की चेष्टा करता हूँ। वीणा के तारों पर  जब ये अबोल उंगलियों का स्पर्श होता है; तब वीणा वादक! श्रोताओं से तादात्म्य जोड़ लेता है। उसी प्रकार दूसरे की वेदना केवल बिना कुछ कहे, उसके पास बैठ जाने भर से एक संबंध जोड़ देता है। जब एक दूजे की भावनाओं, संवेदनाओं का तारतम्य  हो जाता है। तब लेखक! पाठक के बीच एक तार साध लेता है। शायद, कविता का सार भी यही होता है..!

ब्रह्माण्ड

 यह ब्रह्माण्ड तो वन समान  जहाँ अमृत भी है और विष भी है। जो गया अपनी ज़रुरत की खोज लाया; कोई जीवन ले आया, कोई मरण ले आया। जिसे असंतुष्टि है, वह संतुष्टि ले आया। जिसे संतुष्टि है, वह असंतुष्टि ले आया। यह काल खंड का चक्र....  जहाँ अमितत्व भी है और अंत भी है। 

ब्रह्मराक्षस

चित्र
अनहद नाद और  गूँजता निरंतर शब्द  प्राप्त आंतरिक उपलब्धियाँ क्या बाहर सांझा करू? क्या यह भौतिकी प्रबुद्धजन सहज ही समझ,सुन पाएँगे! किंतु मैं क्यों ही यह विचार कर रहा हूँ? व्यर्थ! मन को विचलन स्थल बना रहा हूँ। कहने दो मुझे ब्रह्मराक्षस! मैं ऋणी तो नहीं , न मैं बाध्य हूँ...। Tweet

बचपन

चित्र
 जिन गलियों, मुहल्लों में बचपन बीता था.. अब पता चल रहा है, उनकी क़ीमत क्या थीं!

यौवन

चित्र
 यौवन! सुन रहें हैं, बिना सुने बुन रहें हैं, बिना बुने खीज रहें हैं, बिना खीजे जीत रहें हैं, बिना जीते जी रहें हैं, बिना जीये हार रहें हैं, बिना हारे कह रहें हैं, बिना कहे सह रहें हैं, बिना सहे समझ रहें हैं, बिना समझे भटक रहें हैं, बिना भटके यह कैसा हल्कापन जीवन में!

जुगनू

चित्र
कुछ टूटे हैं सपने कुछ छूटे हैं अपने  जो डोर बांधे हुए थे, ढूंढ़ रहा हूँ... ना जाने कब से ? रौशनी की चाहत लिए, लड़ रहा हूँ, अंधकार से! रातें जाया कर रहा हूँ खुदा ही जाने किस  जुगनू की तलाश में... Tweet  

गधे

अब हम बड़े हो गए, पैरों पर खड़े हो गए। जब बच्चे थे; बोझ ढोते... गधे को देख कर हँसते थे। आज हम ख़ुद “गधे” हो गए!