संदेश

भगवान

 कोई अगर पीड़ा में है और वह आपका नाम पुकारे तो समझ लेना आपसे बड़ा भाग्यवान कोई नहीं है, क्योंकि पीड़ित व्यक्ति की ज़ुबान पर आपका नाम आता है, तो आप उसके लिए भगवान हो गए। भगवान से पहले उसकी जुबान पर आप आए,  आ पके बाद भगवान! उस पीड़ित को कभी निराश मत करना  उसकी सेवा कर देना स्वयं को सेवक समझकर.. आप उसके लिए भगवान है और वो आपके लिए।

दिवास्वप्न

 ये तृष्णा की नदी तो गहरी होती जा रही है। कही ये डूबा ना ले जाए मुझे! कही हाथ पैर मारता ना रह जाऊँ..। यहाँ कोई नाविक दिखाई नहीं दे रहा..! परंतु यह बाह्य दृष्टि तो क्या ही सहायता करेगी! और यह डूबने का भय अंतर्दृष्टि नहीं खुलने देगी। मध्य में ठहर जाऊँ...? क्या इस नदी में आते वेग को सह पाऊँगा ? इतनी शक्ति इस देह में कहाँ ? यह शक्ति भी तो एक नहीं! आसुरी और दैवीय है। कौनसी शक्ति किस अनुपात में होगी मुझमें ? कही आसुरी अधिक हुई..! मेरा शुभ नाश कर जायेगी! कोई मध्य मार्ग निकालूँ या भूल जाऊँ ?  यूँ प्रश्नों के जाल में फँसने वाले‌  जिज्ञासु कहाँ बच पाये हैं। भूल ही जा दिवास्वप्न मानकर! हाँ,भूलना पड़ेगा..!  ये पेट भूखा जो है! कभी-कभी तो आसान लगता है, सब त्याग देना कर्तव्य निर्वहन के आगे..।
चित्र
मैं खाली हो गया हूँ, मेरे शब्द मुझको लौटा दे। घाटा हो रहा है,  मुझको तू बचा ले। बदले में लिखा करूंगा, हर रोज पक्ति तेरे लिए... भरोसा रख, सौदा कर। तुमने ही कहा था! तू व्यापारी अच्छा है।

जिज्ञासा

 जब गौतम सब त्याग कर निकल गया था! यशोधरा को पीड़ा हुई होगी! उस पीड़ा के आसुओं से  सींचा होगा स्वयं को, और बन गई होगी पुष्प।  शायद उसके पुष्प बन जाने पर ही मिला हो गौतम को बुद्धत्व...! जायज है तुम्हारा डरना सखी कहीं मेरी जिज्ञासा ले ना जाये, मुझे वनों में! कहीं छोड़ ना जाऊँ मैं तुम्हें पीड़ा में..! अगर ऐसा हो सखी! तुम “उर्मिला” बन जाना, मैं “लक्ष्मण” हो जाऊँगा। वन में गया हर कोई बुद्ध नहीं बनता।

मैं योद्धा नहीं हूँ

  कुछ लिखने ही बैठा था! कि अचानक ! दरवाज़े पर दस्तक हुई... मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने “मौन” खड़ा था। मुझे साइड हटा कर कुर्सी पर आकर बैठ गया। मैंने डायरी और कलम वापस दराज में रख दी। आये मेहमान का अपमान कैसे करता ? उस मौन को शब्द देकर उसकी “पूर्णता” कैसे हरता..? मुझमें साहस नहीं था! मैं योद्धा नहीं हूँ। मुझे “अर्जुन” नहीं बनना था, हिमालय जाकर नहीं गलना था। मैं सरलता, सहजता को विचार रहा था। मौन की जटिलता, सूक्ष्मता ना चाह रहा था। मुझे युद्ध नहीं करना था।  हाँ ! मुझे ज्ञानिजन कमज़ोर कहेंगे,  दोष निकालेंगे... मैं सब सह लूँगा,युद्ध नहीं स्वीकारूँगा  चाहे अर्जुन का “सारथी” कहे..!  तू निमित्त मात्र है, करना ना करना तेरे हाथ न है!

दृष्टा

 तुम ब्रह्म स्वरूप हो,  तुम केवल दृष्टा बनो। इंद्रियों के विषय में आसक्ति ना रखते हुए एकत्व भाव से भोग करो। इसके लिए प्रयासरत रहना ही ध्यान है,योग है, साधना है, तप है। तुम ब्रह्म स्वरूप हो! जीवन में जो घट रहा है, और जो परिवर्तन हो रहा है, उसका तुम केवल दृष्टा बनो।

ख़ोज

 मुझे लगता है कि  हम अपने ही पूर्वाग्रहों में खो रहे हैं! क्या आपको भी लगता है ? ये समय क्या हम!  अपनी सोची हुई चीज़ों के लिए ख़र्च कर रहे हैं ? या जो हमें सूचवाई गई चीज़ों पर ही लगे हुए हैं! और अगर ऐसा है तो क्या यह हमारे ही द्वारा चुनी गई गुलामी नहीं? क्या यह हमें तनाव मुक्त जीवन जीने देगी? कर लीजिए आज सवाल मेरे संग-संग.. थोड़ी बोरियत महसूस ज़रूर होगी, पर क्या पता!  सवाल करते-करते ही कोई  वाजिब सवाल मिल जाए! जिसे पूछ लेने भर से जागृति हो जाए  और पूरी हो जाये ख़ोज हमारी...!