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अब्दुल कलाम

एक बार कलाम के प्रोफ़ेसर उन्हें अपने घर लेकर गए। प्रोफ़ेसर की वाइफ ने कलाम को पानी या कुछ खाने के लिए नहीं पूछा था बल्कि अपनी नाराज़गी और ज़ाहिर कर रही थी। ( मैं यहाँ वह कहने से बच रहा हूं की उनकी नाराज़गी क्यों थी, आप समझ गए होंगे) उस समय पानी,खाने को प्रोफ़ेसर ने ख़ुद दिया। जब कलाम वापस जाने लगे तो प्रोफ़ेसर बोले.. “एक दिन तुम्हें मेरी वाइफ ख़ुद इनवाइट करेगी  अपने हाथ का खाना खिलाने के लिए” और बाद में वैसा ही हुआ। मेरी समझ से इस बात का मूल यह कि “अपना व्यक्तित्व इतना विराट बना लो की नफ़रत करने वालों की नफ़रत आपके व्यक्तित्व के आगे बौनी नज़र आए।” और आपके द्वारा किए गए काज से आपकी पहले पहचान हो उसके बाद जाति, धर्म आदि से जाने।

मुलाकात

 काया , माया,  और छाया से हटकर  कुछ कहना है,  तो ही मुलाकात कर। यही तेरा केंद्र है, व्यवहार बढ़ाने का ? तो मुझे छोड़!  आगे बढ़..  मैं तेरे काम  का नहीं। मैं चेतना का पुजारी हूँ। तुम बाह्य सज्जा के! मैं सत्य सा गाढ़ा हूँ। तुम झूठ से हल्के! मेरा तुम्हारा क्या ही मेल।

अभिशप्त पुरुष

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कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो कभी लिखी नहीं गई! जो छोड़ दी गई कहकर  अयोग्य, महत्त्वहीन, समय की बरबादी, अविवेचनीय। उस पुरुष की पीड़ा लिखना कठिन है, जो बैठ गया त्रिताप से, होकर आश्रित! जाने अनजाने उसके अपने भी चोट कर जाते हैं जिनके लिए वो उपयोगी था। स्वार्थ और लाभ का असली मतलब  उसने ही जाना होगा ? जाना होगा एकांत व अकेलेपन के महीन अंतर! दिया होगा अपने अपमानों का उसने मौन प्रत्युत्तर। अरे अमित अभिशप्त हैं वे पुरुष  जो इस “नाशवान” लोक में अनुपयोगी है!  कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो क़ैद कर ली गई बिना किसी अपराध के! जैसे सजा मुकर्रर करने के बाद  न्यायाधीश तोड़ देता है क़लम..।