मैं योद्धा नहीं हूँ
कुछ लिखने ही बैठा था!
कि अचानक ! दरवाज़े पर दस्तक हुई...
मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने “मौन” खड़ा था।
मुझे साइड हटा कर कुर्सी पर आकर बैठ गया।
मैंने डायरी और कलम वापस दराज में रख दी।
आये मेहमान का अपमान कैसे करता ?
उस मौन को शब्द देकर उसकी “पूर्णता” कैसे हरता..?
मुझमें साहस नहीं था!
मैं योद्धा नहीं हूँ।
मुझे “अर्जुन” नहीं बनना था,
हिमालय जाकर नहीं गलना था।
मैं सरलता, सहजता को विचार रहा था।
मौन की जटिलता, सूक्ष्मता ना चाह रहा था।
मुझे युद्ध नहीं करना था।
हाँ ! मुझे ज्ञानिजन कमज़ोर कहेंगे,
दोष निकालेंगे...
मैं सब सह लूँगा,युद्ध नहीं स्वीकारूँगा
चाहे अर्जुन का “सारथी” कहे..!
तू निमित्त मात्र है,
करना ना करना तेरे हाथ न है!
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