जंगल

घने जंगल में,

केसर की सुगंध 

खींच रही है।

भुजंग बिछे हैं,

विकराल 

परछाइयाँ

काल सी लगी है।

भीतरी खींचतान 

सिंघ, सारंग सी चली है!

ये सतही जय,पराजय

विषयासक्त आ खड़ी है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अभिशप्त पुरुष

मुलाकात

मैं योद्धा नहीं हूँ