अभिशप्त पुरुष
कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो कभी लिखी नहीं गई! जो छोड़ दी गई कहकर अयोग्य, महत्त्वहीन, समय की बरबादी, अविवेचनीय। उस पुरुष की पीड़ा लिखना कठिन है, जो बैठ गया त्रिताप से, होकर आश्रित! जाने अनजाने उसके अपने भी चोट कर जाते हैं जिनके लिए वो उपयोगी था। स्वार्थ और लाभ का असली मतलब उसने ही जाना होगा ? जाना होगा एकांत व अकेलेपन के महीन अंतर! दिया होगा अपने अपमानों का उसने मौन प्रत्युत्तर। अरे अमित अभिशप्त हैं वे पुरुष जो इस “नाशवान” लोक में अनुपयोगी है! कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो क़ैद कर ली गई बिना किसी अपराध के! जैसे सजा मुकर्रर करने के बाद न्यायाधीश तोड़ देता है क़लम..।
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