चोटिल मन
जब किसी का मन चोटिल होता है,
तब समझाइशों का सिलसिला
उस चोट को और गहरा कर देता है;
कोई भी आकर कुछ कुछ कह जाता है,
यह ‘कहकर चले जाना’ चोट गहरा देता है।
कोई साथ बैठकर समझता है?
गर बैठता हो तब कुछ राहत हो...
चोटिल मन नि:शब्द वार्ता चाहता है!
विक्षिप्त कहेंगे मुझे लोग...!
कैसी लीक से हटकर बात कर रहा है!
मैं आपकी समझाइशों पर उंगली उठाने वाला कौन होता हूँ?
अगर उठाऊंगा भी तो तीन उंगलियाँ मेरी ओर ही होंगी!
मैं विक्षिप्त!
मेरी “चेतना” में आये “अज्ञान” को बता रहा हूँ;
किसी चोटिल की वेदना से अनुस्यूत..
उसकी वेदना की.. अनुभूति की चेष्टा करता हूँ।
वीणा के तारों पर
जब ये अबोल उंगलियों का स्पर्श होता है;
तब वीणा वादक! श्रोताओं से तादात्म्य जोड़ लेता है।
उसी प्रकार दूसरे की वेदना केवल बिना कुछ कहे,
उसके पास बैठ जाने भर से एक संबंध जोड़ देता है।
जब एक दूजे की भावनाओं, संवेदनाओं का तारतम्य
हो जाता है।
तब लेखक! पाठक के बीच एक तार साध लेता है।
शायद, कविता का सार भी यही होता है..!
सुंदर विश्लेषण व उपाय
जवाब देंहटाएंआभार 🙂
हटाएंउत्तम भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंनितान्त श्लाघनीय।
साधुवाद है आपको।
🙏🌻🌷🌺
🙏🙏
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