मृत्युभोज
कविता मर गई है!
कल रात बहुत रोई थी !
द्वार पर सर पीट रही थी।
किन्तु! मैं हठी उसको पूछा नहीं....
और पूछता भी क्यों?
मैं असत्य लिखता था,
वो सत्य कह जाती थी ।
मैं सुप्त लिखता था,
वो जागृत कर जाती थी ।
मैं बंधन लिखता था,
वो मुक्त रह जाती थी।
"मुझको" ही "मुझे" बता रही थी।
बड़ी आई आइना दिखाने वाली!
हाँ! हाँ! मृत्युभोज कर दूँगा।
आख़िर ! मैं धर्मनिष्ट तो हूँ ही।
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