कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो कभी लिखी नहीं गई! जो छोड़ दी गई कहकर अयोग्य, महत्त्वहीन, समय की बरबादी, अविवेचनीय। उस पुरुष की पीड़ा लिखना कठिन है, जो बैठ गया त्रिताप से, होकर आश्रित! जाने अनजाने उसके अपने भी चोट कर जाते हैं जिनके लिए वो उपयोगी था। स्वार्थ और लाभ का असली मतलब उसने ही जाना होगा ? जाना होगा एकांत व अकेलेपन के महीन अंतर! दिया होगा अपने अपमानों का उसने मौन प्रत्युत्तर। अरे अमित अभिशप्त हैं वे पुरुष जो इस “नाशवान” लोक में अनुपयोगी है! कभी तो लिखूँगा मैं वो पीड़ाएँ जो क़ैद कर ली गई बिना किसी अपराध के! जैसे सजा मुकर्रर करने के बाद न्यायाधीश तोड़ देता है क़लम..।
काया , माया, और छाया से हटकर कुछ कहना है, तो ही मुलाकात कर। यही तेरा केंद्र है, व्यवहार बढ़ाने का ? तो मुझे छोड़! आगे बढ़.. मैं तेरे काम का नहीं। मैं चेतना का पुजारी हूँ। तुम बाह्य सज्जा के! मैं सत्य सा गाढ़ा हूँ। तुम झूठ से हल्के! मेरा तुम्हारा क्या ही मेल।
कुछ लिखने ही बैठा था! कि अचानक ! दरवाज़े पर दस्तक हुई... मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने “मौन” खड़ा था। मुझे साइड हटा कर कुर्सी पर आकर बैठ गया। मैंने डायरी और कलम वापस दराज में रख दी। आये मेहमान का अपमान कैसे करता ? उस मौन को शब्द देकर उसकी “पूर्णता” कैसे हरता..? मुझमें साहस नहीं था! मैं योद्धा नहीं हूँ। मुझे “अर्जुन” नहीं बनना था, हिमालय जाकर नहीं गलना था। मैं सरलता, सहजता को विचार रहा था। मौन की जटिलता, सूक्ष्मता ना चाह रहा था। मुझे युद्ध नहीं करना था। हाँ ! मुझे ज्ञानिजन कमज़ोर कहेंगे, दोष निकालेंगे... मैं सब सह लूँगा,युद्ध नहीं स्वीकारूँगा चाहे अर्जुन का “सारथी” कहे..! तू निमित्त मात्र है, करना ना करना तेरे हाथ न है!
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