पर्णी

ठीक ही तो कह रहा था।

वह पर्णी;

“मेरी मजबूती इसलिए कायम है,

मैं आज भी अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ हूँ।

और यह जुड़ाव मुझे हर ऋतुओं से

होने वाले परिवर्तन को समत्व भाव से

ग्रहण करने की क्षमता प्रदान करता है।”


“मैं अपनी शाखों, पत्तों, फलों पर कभी 

अपना स्वामित्व नहीं रखता।

उनका भरण पोषण करना प्राकृतिक धर्म है।

और मैं अपना धर्म सत्यता के साथ निभाता हूँ।

और यही सत् मुझे एक वृक्ष के रूप में पूर्ण करता है ।

जड़ों से जुड़ाव मुझे प्रभुत्व स्थापित करने

का भाव रखने की अनुमति नहीं देता।”


उसकी बातें सुनकर।

मैं उस उद्यान से नि:शब्द होकर वापस आ गया।

यह पहली बार था, कि मैं किसी को धैर्य पूर्वक सुना!

कहता भी क्या उस वृक्ष से? 

हम तो छोटा सा पद या कुछ सफलता पा कर फूले नहीं समाते हैं! और जाने क्या क्या डींगे हाक जातें हैं!

सोच रहा हूँ, अगले दिन मैं कैसे जा पाऊंगा..

मैं उस तरुवर से क्या नज़रें मिला पाऊंगा ?




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